Monday 23 October 2017

Dispute in Past "Religion", Present "Region" And Imagin Future !!! Reloaded

I visited a house yesterday, it was a Punjabi’s home and I saw two portrait hanging there with foolmalas over them paying same respect, you want to know whom of those portraits were one was of late senior member of that family and one was of Legend of India Late Mr. Subhash Chandra Boss (A Bengali by Birth if I ask some narrow minded persons like ..), I glad after seeing this and think in my mind why some person disturbing these kind of thinking of India and for What reason only for their vote bank. I want to say something to those people who are favoring these cheap mentality persons or political parties please just imagine this “If Mr. Gandhi had thinking like that I am Gujrati and I will do only for Gujarat, Mr. Subhash Chandra Boss for Bengal, Maharani Laxmibai for UP, Bhagat Singh for Punjab and other freedom fighters for their respective region (I think they were not right Politicians) we can’t get released that’s for sure” Now imagine a new thing here if the soldiers will decide they will not go to border if the border is not in their region then where they will go UP soldiers on UP borders, MP on MP, Marathi on Maharashtra and other on there state what will they do there, will they wait for a Raj or a Shivraj to kill other state soldier Is this our future in our Country it is possible if we will blindly support these politicians just because they are from our region. Please think about it and stays connect for INDIA.

Dispute in Past "Religion", Present "Region" And Imagin Future !!!

Politician deviding India in Religion first and now in Region
I read news paper today and shoked how the members of assembly can do the things like this and what is the region behind it The National Language , why we are choosing them? why we dont learn from past? Why we dont start new thinking and new parameters to choose them?
I am talking about the politics all arround us what is Hard Liner and what is soft ,Is Hard liner are those who condems all things and the soft who dont have any affect of anything.
These are the todays definition for hard and soft. its ok for those wo belive in but what for those who dont belive in these silly thoughts will they go dump and dont do anything regarding this no its not a solution atleast i think like this so please stand up and do something for India its your nation no! Its Our Nation and we pround on It.
and make it like that in future the country remain Prouded.

FDI मेरी सोच

मुझे बताया और समझाया जा रहा है के FDI आने से मेरी ज़िन्दगी बदल जाएगी
सामान सस्ता मिलने लगेगा किसान को ज्यादा पैसा मिलने लगेगा
मुझे याद है कुछ साल पहले मुझे ये भी समझाया गया था के संग आने से आपका किराया कम हो जायेगा,उसका क्या हुआ हमने देख लिया
अभी मेरे एक दोस्त ने सत्यमेव जयते देखते हुए मुझे कुछ याद दिलाया
“के एक शहर है जो बिलकुल साफ़ रहता है
पर वहां के लोग ये नहीं सोचते के जो हमारे यहाँ सफाई हुई है वो कूड़ा कहाँ गया
वो भी तो कहीं न कहीं गन्दगी फैला रहा होगा”
FDI मेरे लिए बिलकुल वैसा ही है शायद कुछ समय के लिए मुझे
सामान थोडा सस्ता भी मिल जाये और कुछ लोगों को फायदा भी हो जाये
पर उनका क्या जिनकी रोजी रोटी छीन जाएगी या फिर उनको अपने जीवन की फिर से
शुरुआत करनी पड़ेगी या शायद ख़तम भी करनी पड़ जाएगी जिनको आज हम बिचोलिये
बोलते हैं और कुछ छोटे दुकानदार उनका क्या , आज हम FDI का समर्थन या विरोध कर सकते हैं
पर जब कोई FDI के चक्कर में ख़ुदकुशी करेगा तो हमें India Gate पर मोमबत्ती जलाने का अधिकार कतई नहीं होगा
मै ये कतई नहीं बोल रहा हूँ के हम अपने बारे में न सोचें अपना फायदा या मुनाफा न देखें
देखें खूब देखें पर फिर किसी और से आपको फायदा पँहुचाने के बारे में थोडा सोच लें
और क्या हम सिर्फ Executives के बारे में सोचने लगते हैं हमारी सोच इतनी संकुचित हो जाती है
जैसे इधर उधर का न दिखे उसके लिए घोड़े के आँखों पे एक अँखौड़ा (blinder) लगाया जाता है
हमने बिना अँखौड़ा के ही इधर उधर देखना बंद कर दिया है
क्या FDI का विकल्प नहीं है है बिलकुल है बहुत समय से हम अपने देश में सुनते आ रहे हैं
मझोले यानि छोटे उद्योग जो हमारे लिए हमारे द्वारा बनाये गए उपकरण, सामान , दवाइयां
और वो सब चीजें जो हम आयात करते हैं लेकिन उनको हम आसानी से अपने यहाँ बना, उगा सकते हैं
कुछ समय पहले आपने सुना होगा हमने गेहूं तक आयात किया था जबकि हमारा गेहूं हमारे अपने गोदामों
में सड़ रहा है, तो क्या पता कल हम सब्जियां भी मँगाने लगें जो हम आसानी से उगा रहे हैं|
 
लोग बोल रहें हैं FDI से उपभोक्ता को फायदा होने वाला है मैं कैसे विश्वास कर लूं पिछले 13 साल से महारास्ट्र सत्तर हज़ार करोड़ रूपये सिर्फ DAM बनाये गए हैं और उन DAM से १% भी सिंचाई की ज़मीन में इजाफा नहीं हुआ तो मैं कैसे मान लूं के विदेशी निवेश आएगा और उसको किसानो की ज़मीन में लगाया जायेगा जो पैसा हमारे पास है उसको तो हम लूटा रहें हैं और विदेशी पैसे की और देख रहे हैं कैसे ये हो सकता है विदेशी कम्पनियाँ आएँगी हमारे किसानों को खेती के लिए पानी देंगी नहरें बनायेंगी और अगर ये बोला जाये की वो पैसा देंगी और सरकारें पानी देंगी इन सरकारों पर कैसे भरोसा किया जाये जो सत्तर हज़ार करोड़ लूटा कर भी एक प्रतिशत सिंचित ज़मीन न बढ़ा पायें वो हमारे किसानो को मदद कैसे करेंगे|
मान लेता हूँ सब अच्छा अच्छा होने जा रहा है उपभोक्ता को बहुत फायदा होने वाला हैं किसान को बहुत फायदा होने वाला है पर उस मुर्गी (ज़मीन) का क्या सोने के अंडे देती है और जिसको हम थोड़े से स्वार्थ के लिए काट रहे हैं और इन कंपनियों के लिए इसको और तेज़ी से काटने वाले हैं मुझे पता है बहुत से लोग मेरी बात को नहीं मानेंगे पर मैं अपना ही उदहारण रखता हूँ हमारी ज़मीन में दस साल पहले तक आठ क्विंटल प्रति बीघा गेहूं हुआ करता था आज यूरिया और रासायनिक दवाईयों के छिडकाव ने ये उपज घटा कर ढाई क्विंटल प्रति बीघा कर दी है जबकि हम बीच बीच में जैविक खाद का भी उपयोग करते हैं|
बहुत अच्छे अच्छे सपने दिखाएँ जा रहें हैं मैं कामना करता हूँ सपने सच हों! पर विश्वास तो कतई नहीं है|
एक तर्क दिया जा रहा है कुछ ही शहरों में तो ये लागू होने जा रहा है और एक बार तजुर्बा करके देख लेते हैं अगर नुकशान भी हुआ तो थोडा होगा! मैं इस तर्क के सख्त खिलाफ हूँ और हमेशा इस तर्क के खिलाफ रहूँगा! हाँ एक बात और कही जा रही है के हम खेती और खुदरा व्यापार को संगठित करना चाहते हैं अच्छी बात है शायद कुछ अच्छा हो इससे पर क्या इसके लिए हमें बाहरी किसी कंपनी के निवेश की जरुरत है!

16 दिसम्बर विजय से पराजय दिवस तक

शर्दियों के दिन थे और पाकिस्तान ने हमारे 11 हवाई अड्डों पर हमला कर दिया था जिससे मज़बूरी में हमें एक ऐसी जंग में कूदना पड़ा जो एक अजीब से भौगोलिक लगने वाले देश के अंतर्विरोधों से पैदा हुई थी जिसका एक हिस्सा भारत के उत्तर पश्चिम में और दूसरा भारत के पूर्वी छोर पर हुआ करता था ये वास्तव में अजीब लगने वाला भौगोलिक बंटवारा था जो 1947 में हुआ था|
यह एक ऐसी जंग थी जिसमे हमारे जवानों ने दो छोरों पर विदेशी मदद से लड़ने वाले देश को झुकने पर मजबूर कर दिया| भारत की फ़ौज और मुक्ति वाहिनी ने शौर्य और पराक्रम की ऐसी गाथा लिखी के दुश्मन को मैदान तो छोड़ना ही पड़ा बल्कि उसको अपने पूर्वी हिस्से से भी हाथ धोना पड़ा जो आज बांग्लादेश है| जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के नेतृत्व में 16 दिसम्बर 1971 को भारतीय फ़ौज ने पाकिस्तान की फ़ौज के जनरल आमिर अब्दुलाह निआजी को अपने 93000 हथियारबंद सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण करने के लिए मजबूर कर दिया|
इसको हम "विजय दिवस" के रूप में मनाते हैं अपने सैनिकों के अथक प्रयासों और बहादुरी और युद्ध के परिणाम अवश्य ही यह नाम सर्वथा उचित है|
इसके ठीक 41 साल बाद 16 दिसम्बर 2012 को देश की राजधानी में एक ऐसा हादसा हुआ जो नया तो नहीं था परन्तु इसकी गूँज ऐसी थी कि देशभर के लोगों की रूह काँप उठी| शायद ये मानवता की या फिर यूँ कहूँ पुरुषवादी सोच की सबसे वीभत्स ज्ञात घटनाओं में से एक थी| एक तरफ तो एक बेटी जिंदगी और मौत से लड़ रही थी वंही दूसरी और दिल्ली में इंडिया गेट से लेकर राष्ट्रपति भवन तक देश भर से आये युवक और युवतियों ने इस देश के आकाओं से नींद से जागने का आह्वान किया| यह लड़ाई किसी देश के आजाद कराने या विरोध की नहीं थी परन्तु ये थी अपने अधिकारों को सुनिश्चित करने की, कुछ लोगों को अपने कर्तव्य याद दिलाने की और न्याय के लिए गुहार नहीं आदेश सुनाने की| इन युवाओं के संघर्ष ने कानून बनवाकर एक नया इतिहास लिखा परन्तु इस कहानी का दुखद अंत हुआ 41 साल पहले हम जीते थे परन्तु इस बार हम हार गए और ये हार मानवता की हार थी एक तरफ तो उस हम आजादी के 60 सालों में भी ऐसे चिकित्सालय नहीं बना पाए जहाँ हम उस बहादुर लड़की का इलाज करवा पाते वहीँ दूसरी और हमारे नेताओं के एक से एक अजीब बयानों ने पीड़ा को और बढ़ा दिया| किसी ने बोला कुछ लोग फैशन करके इंडिया गेट पर बैठे हैं, कुछ ने छात्रों पर एक पुलिस वाले की मौत का इल्जाम लगाने तक का षड्यंत्र तक रच दिया|
अजीब सी बेचैनी थी कुछ दिनों बाद खबर आई सिंगापूर में उस बहादुर बेटी ने अपने प्राण गँवा दिए हम पराजित हो गए मानवता के मानकों पर ये हमारी सबसे बड़ी पराजय थी| पर क्या हमने उससे कुछ सिखा?, क्या ऐसे मामले कम हुए क्या? लोग सुधरे? ये सवाल हैं और इनके जवाब उस पराजय को रोज जीने का अहसास कराते हैं|
बड़ा असमंजस है इसको विजय दिवस कहूँ या पराजय दिवस

आरक्षण हमारी बेईमानी का परिचायक है

कुछ दिनों से आरक्षण पर बहस चल पड़ी है वैसे गाहे बगाहे चलती ही रहती है कुछ दोस्तों को लगता है ये व्यवस्था उनके साथ अन्याय है, गुजरात में 1980 के दशक में आरक्षण का विरोध करने वाला पाटीदार समुदाय आज आरक्षण की मांग कर रहा है, तब आरक्षण के बारे में बहुत सारे सवाल जवाबों का सिलसिला चल पड़ा है| फिर उसमे संघ प्रमुख का कूद जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है उनका कहना है कि आरक्षण व्यवस्था पर पुनर्विचार होना चाहिए| मेरी समझ में वो अपने उन समर्थकों को खुश करना चाहते हैं जो आरक्षण विरोधी हैं उससे अधिक कुछ भी नहीं वर्ना अगले ही दिन वो अपना पक्ष एकदम उलट नहीं देते|
मुझे याद है लोकसभा में भाषण में कांग्रेस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री जी ने कहा था कि "आप मेरी राजनितिक बुद्धि पर तो शक नहीं कर सकते हैं मैं कभी मनरेगा (रोजगार गारंटी योजना) को बंद नहीं करूँगा क्यूंकि ये आपके के फेल होने का परिचायक है,आपने इतने साल शासन में रहने के बाद गरीब को कुछ दिन गड्ढे खोदने का काम दिया"
बिलकुल इसी तर्ज पर मैं कह सकता हूँ आरक्षण हमारे इंसानियत के तौर पर फेल होने का परिचायक है हम लोग इस कदर बेईमान हैं कि जिसको हमारे पूर्वजों और हमने उठने का मौका देने की बात तो छोडिये, उनके कुछ कामों को करने तक पर प्रतिबन्ध लगा रखा है, उनको दी गयी सुविधा को बंद करने की मांग करते हैं|
कुछ लोग कहते हैं आरक्षण पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए और कुछ कहते हैं कि आरक्षण का आधार गरीबी को कर देना चाहिए| हम लोगों को समझना चाहिए कि आरक्षण गरीबी उन्मूलन का कार्यक्रम नहीं है|
हम लोगों की बेईमानी को देखते हुए इसका क्या भरोसा कि आरक्षण को गरीबी आधारित करने के बाद गरीबों को ही उसका फायदा मिलेगा, पैसे देकर गरीबी के सर्टिफिकेट बनवाने वाले अमीरों को भी तो जानते हैं हम| इसी साल पता चला दिल्ली में EWS यानी स्कूल में गरीबों के लिए आरक्षित स्थानों पर कई अमीरों ने गरीबी के सर्टिफिकेट बनवाकर अपने बच्चों को दाखिला दिलवा रखा है, पता नहीं कितने सालों से ये खेल चल रहा होगा|
एक आरक्षण और है, "जो मध्यम वर्ग या उससे उपरी तबके वाले दोस्त जिनमे मैं भी शामिल हूँ" के काम आता है उसको बोलते हैं सिफारसी आरक्षण, हम लोग सिफारिस के फायदे उठाकर नौकरी या कोई काम पाते हैं और पीछे से बोलते हैं आरक्षण ख़त्म कर देना चाहिए| क्या हम पिछड़ी जाति के किसी व्यक्ति को सिफारिस लगाकर नौकरी देते हैं कुछ अपवाद को अगर छोड़ दें तो सिफारसी आरक्षण का लाभ सिर्फ उपरी तबका ही उठाता है| क्या आप और हम ये शपथ पत्र देने को तैयार हैं कि सिफारसी आरक्षण का लाभ नहीं उठाएंगे|
आपको आरक्षण को ख़त्म करने के बारे में अगर सोचना भी है तो ईमानदारी से सोचना होगा और अपने कर्तव्य निर्धारित करने होंगे|

एक तर्क है कि आरक्षण के कारण कम प्रतिभा के छात्रों को जगह मिल जाती है,वो डॉक्टर बन जाते हैं जज बन जाते हैं सरकारी नौकरी मिल जाती है बड़े अधिकारी बन जाते हैं, चलिए इसका जवाब तलाशते हैं इसमें कितनी सच्चाई है, पहली बात जन्म से हम उन लोगों को इतना प्रताड़ित करते हैं उनकी जाति को लेकर उनके रहन सहन को लेकर, उनके खान पान को लेकर, उनको पढने तक का मौका देने से कतराते हैं मैंने कईं ऐसे अध्यापकों को देखा है जो जाति के आधार पर नंबर देते हैं आप कहेंगे बड़ी परीक्षा में किसी का नाम नहीं जाता, सही है पर हमने जिसे बचपन से सिखाया है कि तू अच्छा आदमी नहीं बन सकता जो तेरे माता पिता करते हैं वोही तेरा काम है वो उन सब विचारों से लड़ता हुआ अगर बड़ी परीक्षा दे भी रहा है वो तो वैसे ही जीत चुका है हमारी परीक्षा उसे क्या फेल करेगी| पर वो जद्दोजहत करता हुआ किसी उपरी तबके के छात्रों जो किसी भी परीक्षा की तैयारी में लाखों रूपये फूंक देते हैं उनसे उसके 10-20 नंबर कम आने पर हम प्रतिभा कम होने का रोना रोते हैं|
मैंने पहले भी एक सच्ची कहानी आप लोगों से साझा की है, मेरे दो दोस्त(उनके नाम इसलिए नहीं लिखता हूँ कहीं उनकी खुद्दारी को ठेस न पंहुचे क्यूंकि वो हमेशा कक्षा में प्रथम आते थे बिना किसी सुविधा के) आज मेरा उनसे संपर्क नहीं है पर वो दोनों भारत की एक प्रतिष्ठित कम्पनी में काम करते हैं और आरक्षण के कारण वो उस कम्पनी में पंहुच पाए है| उनके शुरूआती जीवन के बारे में हम और आप सोच नही सकते गर्मियों की छुट्टियों में जब हम लोग ननिहाल जाया करते थे तब वो एक शराब की फैक्ट्री में बोतलों पर ढक्कन लगाते थे| हमें जब सुबह स्कूल जाने के लिए उठाया जाता था तब वो किसी ट्रक में रेत भर रहे होते थे| उनकी प्रतिभा हम सबसे कहीं ऊपर है जो किसी परीक्षा तक पंहुच भी जाते हैं मुझे याद है जब हम पांचवी कक्षा में थे तब जिलास्तर पर वजीफे के लिए एक प्रतियोगिता होती थी उसमे हम तीन दो वो मेरे दोस्त और एक मैंने अगले तीन साल के लिए वजीफा प्राप्त किया था उनको थोडा अधिक मिलता था मुझे थोडा कम, मेरे भी दिमाग में यही आता था ऐसा क्यूँ जब हम तीनों ने एक ही परीक्षा दी है तब ये भेदभाव क्यों, पर आज मुझे उसके सारे मायने पता हैं वो लोग सुबह उठकर काम करके दिहाड़ी मजदूरी करके भी उस प्रतियोगिता में हमारे जैसे कईं सुविधाओं से लैस या कम से कम कोई काम तो नहीं करते थे उन सबमें वो जीते, वो तो हर उस वजीफे के हक़दार हैं जो मिल सकता हो, आरक्षण मेरे लिए वोही वजीफा है|

एक और तर्क है हमारे पूर्वजों के द्वारा किये गए गलत कामों की सजा हमें क्यों, इसका कुतर्की जवाब है मेरे पास मुझे मालूम है ये ठीक जवाब नहीं है फिर भी लिख देता हूँ क्योंकि बहुत सारे कुतर्क पढने के बाद एक आध तो हम भी दे सकते हैं "जब हम अपने पूर्वजों के शौर्य और अभिमान को साथ लेकर चलते हैं तो उनके कुछ गलत कामो को भी ढोना पड़ेगा"
चलताऊ जवाब है पर सच है हम रोज रोज बोलते हैं हमारे पूर्वज ऐसे थे वैसे थे उन्होंने ये जीता वो जीता तो हमें ये भी मानना पड़ेगा उन्होंने एक बेहद ही शर्मनाक परंपरा को भी आगे बढाया, अगर हम भी बढ़ाएंगे तो हमारे आने वाली पीढ़ी को भी झेलना पड़ सकता है|
आरक्षण व्यवस्था से आपको लग सकता है किसी के साथ ज्यादती हो रही है पर ये उन सब ज्यादतियों से कम है जो वो बचपन से झेल रहे होते हैं, उनके पुरखों ने झेली है और दिमाग में डाल दिया गया कि ये काम आपके हैं और ये नहीं|

संदूक साहित्य भाग एक

महबूब को छोड़ अब मैंने संदूक पर लिखा है, नहीं नहीं ये वो भैंस पर लिखे मुर्ख छात्र के निबंध जैसा नहीं
संदूक जो हिस्सा है मेरे आपके जीवन के उतार चढ़ाव का
संदूक जिसमे यादें पिछले बरस की, संदूक जिसमे कपडे अगले बरस के
संदूक जिसमे किताबें पिछले बरस की, संदूक जिसमे बर्तन अगले बरस के
संदूक जिसमे रजाई सर्दियों की, संदूक जिसमे खेस गर्मियों का
संदूक भूत है संदूक भविष्य है अरे साहब संदूक ही वर्तमान है
सोचो संदूक न होता तो कहाँ रखते वो पोटलियाँ लिखी हुई खतों की
कहाँ संजोते पुराने फोटो, वो डायरी गुलाब के फूलों की
संदूक ही जिंदगी का मजमून, संदूक बिना सब सून
चलिए शादी में चलते हैं, अरे संदूक से सूंट तो निकाल लाओ
वो दादा जी वाली टाई भी ले आना अच्छी लगती है
मेरे एक दोस्त ने कहा संदूक न हुआ जिमखाना हो गया
अरे आप क्या जाने दीवान में सामान रखके उसके ऊपर सोने वाले
जनाब हम पलंग वाले संदूक में सामान रखा करते थे
हर बरस सर्दियों के आने से पहले और बारिस के जाने के बाद खोला जाता था पूरा संदूक
धुप के हवाले कर दिया जाता था पूरा सामान और बेचारे संदूक को हवा का अहसास तभी होता था
मेरा सच्चा दोस्त था संदूक, उसमे किताबें जो मुझे अच्छी नहीं लगती थी छिपा दिया करता था
वो भी चुपचाप किसी कोने में ऐसे दबा लेता था जैसे निकलने ही नहीं देगा
संदूक वो कथा है जो पूरी नहीं हो सकती, तो ले लेते हैं संदूक से एक अल्पविराम

भीमराव आंबेडकर एक विरोधी व्यक्तित्व

पिछले कुछ दिनों से आंबेडकर को पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ
 
Annihilation of caste (हिंदी में "जाति के विनाश") लेख बहुत क्रन्तिकारी और हिन्दू धर्म की बहुत सारी कुरीतियों पर चोट करने वाला है इतना कि अगर आज के परिपेक्ष्य में देखूं तो उनको रोज देशद्रोही करार दिया जा सकता था, उस समय भी दिया गया था|
इस लेख के बारे में एक रोचक बात भी है ये लेख वास्तव में लाहौर में होने वाले जात-पात तोड़क मंडल के सम्मलेन के लिया लिखा गया भाषण था, जिसमे आंबेडकर को अध्यक्ष के तौर पर बोलना था, परन्तु जब भाषण कार्यक्रम आयोजित करने वाली समिति ने पढ़ा तो इसके अति हिन्दू विरोधी होने के कारण उस सम्मलेन को ही स्थगित कर दिया गया| उसके बाद आंबेडकर ने अपने पैसे से इस लेख की 1500 प्रतियाँ छपवाकर बंटवाई, जिसका पहला संस्करण अंग्रेजी  में था और फिर इस लेख के और भाषाओँ जैसे हिंदी, मराठी में अनुवाद भी छपे| उसके कुछ समय बाद आंबेडकर ने लगभग एक श्रृंखला इस प्रकार के लेखों की प्रकाशित करायी|
 
इस लेख में पहले आंबेडकर ने कुछ साल पहले होने वाले राजनितिक और सामाजिक सुधार सम्मेलनों का जिक्र किया और बताया की दोनों सम्मलेन पहले एक साथ शुरू हुए और उसके बाद अलग अलग पंडालों में लगने लगे, राजनितिक धड़ा उस समय की भारतीय कांग्रेस के समर्थन में आ गया और सामाजिक धड़ा सामाजिक सुधार के पक्ष में, परन्तु धीरे धीरे सामाजिक पक्ष कमजोर होता चला गया, कटुता इतनी बढ़ गयी थी कि जब सामाजिक सम्मलेन के लिए अलग से पंडाल बनाया जा रहा था तो विरोधी पक्ष ने पंडाल जला देने की धमकी तक दे डाली|
आंबेडकर के शब्दों में विरोध बढ़ता जा रहा था एक तरफ तो उन्होंने उस कालखंड के आसपास हुई दलित विरोधी घटनाओं का विस्तार से वर्णन किया वहीँ राजनितिक पक्ष और कांग्रेस के कुछ नेताओं को आड़े हाथो लिया, कांग्रेस के 1892 के इलाहाबाद अधिवेशन में कांग्रेस के श्री डब्लू सी बोनेर्जी के वाक्यों को सामाजिक आन्दोलन के अंतिम संस्कार का भाषण करार दिया जिसमे उन्होंने कहा था
"मेरे अन्दर उनके लिए कोई धैर्य नहीं है जो कहते हैं बिना सामाजिक सुधार के हम राजनितिक सुधार योग्य नहीं बन पाएंगे| मैं इन दोनों के बीच कोई संबंध नहीं देख पा रहा हूँ| क्या हम राजनितिक सुधार के योग्य इसलिए नहीं हैं कि हमारे यहाँ विधवा विवाह नहीं होता या हमारी लड़कियों की शादी समय से पहले कर दी जाती है, जब हम अपने दोस्तों के यहाँ जाते हैं तो हमारी पत्नी और बेटियां साथ में नहीं जाया करती, और क्या हम राजनितिक सुधार के लिए योग्य इसलिए नहीं हैं क्योंकि हमारी बेटियां ऑक्सफ़ोर्ड या कैंब्रिज पढने नहीं जाती"
ये सामाजिक सुधार पक्ष के लिए कटाक्ष सरीखा था और उनकी हार को घोषित किया जा चुका था|
 
Annihilation of caste के बहुत सारे हिस्से हैं जो आपको पढने चाहिए, हाँ आपको आगाह कर देना चाहता हूँ अगर आप हिन्दू धर्म की आलोचना पढना या सुनना नहीं चाहते तो कृपया न पढ़ें या कम से कम मुझे न बोलें|
 
मैं उस पक्ष को अभी इसलिए प्रस्तुत नहीं कर रहा हूँ एक तो मैंने ठीक से अभी पढ़ा नहीं है और दूसरा मैं अभी कड़वी बातें किसी से नहीं सुनना चाहता जो उस लेख के बाद आंबेडकर को सुनाई गयी थीं
 
विस्तार से पढने के लिए http://www.ambedkar.org/ambcd/02.Annihilation%20of%20Caste.htm यहाँ जाएँ
 
आंबेडकर का बीबीसी के साथ इंटरव्यू सुना जिसमे वो गाँधी की आलोचना करते हैं और कहते हैं की गाँधी तीन अखबार निकालते हैं "हरिजन", "यंग इंडिया" और एक गुजराती भाषा में, आंबेडकर यहाँ कहते हैं गाँधी दो तरह की बात करते हैं एक तरफ वो "हरिजन" और "यंग इंडिया" में कहते हैं समानता आवश्यक है और दलितों को उनके अधिकार मिलने चाहिए और दूसरी ओर गुजराती अखबार में सनातन धर्म और जाति व्यवस्था को उचित बताते हैं और जब मैं जाति प्रथा को जड़ से मिटाने की बात करता हूँ तो वो मेरा विरोध भी करते हैं| उनके बारे में जो लिखा पढ़ा जाता है वो सिर्फ उनके दिल्ली से निकलने वाले लेखों से एक धारणा बनाने के लिए किया जाता है ये आंबेडकर कह रहे हैं| फिर आंबेडकर कहते हैं गाँधी को उनके अनुयायियों से ज्यादा मैं जानता हूँ क्यूंकि मैं जब उनके सामने बैठता हूँ तो मैं उनको महात्मा या भगवान् के रूप में नहीं देखता बल्कि एक दो तरह की बाते करने वाले व्यक्ति के तौर पर देखता हूँ|
 
अपने जीवन के अंतिम समय में उन्होंने कहा मैं अपना हिन्दू धर्म में पैदा होना नहीं बदल सकता परन्तु मैं एक हिन्दू रहते हुए नहीं मरूँगा और बम्बई में हुए एक समारोह में अपने पांच लाख समर्थकों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया (संख्या की प्रमाणिकता का कोई साक्ष्य मेरे पास नहीं है)|
 
14 अप्रैल को बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का जन्मदिन है सभी कमर कस लें सभी राजनितिक दल आंबेडकर को भुनाने में लगने वाले हैं
हर दल के नेता चाहे वो आंबेडकर के दिखाए गए रास्ते के धुर विरोधी हों ऐसा प्रवचन देंगे जैसे यही आंबेडकर के सच्चे अनुयायी है, अनुयायी से मेरा मतलब आंबेडकर को भगवान् मानकर उनके भजन यापन में लगने से कतई नहीं है क्योंकि आंबेडकर स्वयं व्यक्ति पूजा के खिलाफ थे|
आरक्षण के बारे में अपने समाज हाँ अपने समाज की मीटिंग में कड़वी से कड़वी बातें करने वाले लोग कल आंबेडकर की वो किताब ली हुई मूर्ति पर माल्यार्पण करते हुए दिख जायेंगे, इन लोगों को देखकर मुझे अपने वो सहपाठी याद आ जाते हैं जो 10वीं कक्षा में गुरूजी के पैर छूते हुए उन्हें गाली दे रहे होते थे|
 
आंबेडकर जो व्यक्ति पूजा के घोर विरोधी थे आज उनको वहीँ रख दिया गया है कुछ ने तो आंबेडकर के चक्कर में अपनी भी बनवा डाली, तो अपनी अपनी मूर्ति चुनों और माला लेकर लग जाओ काम पर नमस्कार

उनके चले जाने के बाद

हमारे देश में राजकुमार और राजकुमारी आये थे, अखबारों को देखकर ऐसा लग रहा था जैसे हम आज भी गुलाम हैं, अपना अपना नजरिया हो सकता है|
खैर मैंने अख़बारों की आलोचना के लिए ये लेख नहीं लिखा मैंने ये सिर्फ अपनी तसल्ली के लिए लिखा है, जब वो यहाँ थे तो मैंने ये इसलिए नहीं लिखा कहीं वो अपने पुराने अवतार में न आ जाएँ और मुझे काला पानी भेज दें, वैसे सुना है आजकल हमने वहां बड़े सुन्दर पार्क बना दिए हैं
हम शायद पाकिस्तान को अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते हैं, पर जो अंग्रेज 200 साल तक खाल उतारते रहे उनके लिए हमारे दिल में एक अलग जगह है, चाहे वो ब्रिटेन जाकर पढना हो नौकरी करना हो या फिर उनके यहाँ से आये हुए लोगों को पलकों पर बैठने का खासकर राजघराने से आये लोगों को|
अरे हाँ कुछ विशेष शब्द हैं duke and duchess मने शासक और रानी, ये तो अख़बारों में पढ़ते ही मजा आ जाता है अंग्रेजी के खासकर| अब उनको भी ऐसे शब्द लिखने का मौका कम ही मिलता होगा न गलती से हमारे पुरखों ने आजादी दिलवा दी नहीं तो हम भी duke and duchess के शासन में पल रहे होते और अख़बार ये शब्द बार बार इस्तेमाल कर पाते|
भावी महाराज और महारानी काजीरंगा के वन में सैर सपाटे के लिए गए क्यूंकि अब वो लोग सैर सपाटा करने लगे हैं,क्यूंकि शिकार करने को आजकल वो लोग मानव मूल्यों के विरुद्ध मानने लगे हैं, कहीं पढ़ा था उनके दादा जी फिलिप ने भारत की सैर पर शेर कर शिकार किया था दुर्लभ कैमरों के समय फोटो भी प्रकाशित की गयी थी| मेरा मन हुआ उनको कोई काला पानी की सैर करने को बोले जरा देख तो लें उनके पुरखों ने कितने जख्म दिए है या फिर बस ये तय कर लेने से कि अब वो लोग जख्म नहीं देंगे से प्रायश्चित हो गया| एक गजब बात भी हुई कुछ शिकारी लोगों को लगा हमारे पुराने दिन वापस आ गए हैं उन्होंने उसी काजीरंगा में एक गैंडे को AK47 से मार दिया|
 
एक फोटो देखकर मेरा मन प्रसन्न हुआ जब भारत के प्रधानमंत्री ने तथाकथित राजकुमार साहब से हाथ मिलाये और उनका हाथ सफ़ेद हो गया, मैं सोच रहा था प्रधानमंत्री साहब का का मन तो हुआ होगा कि पूछ लें जो वो सेना की ट्रेनिंग वगरह की अफवाहें फैलाते हैं उसमे दम कितना है, इतना भी क्या नाजुक हुए राजकुमार जी|
उन्होंने सचिन और वेंगसकर के साथ क्रिकेट खेली,  हाथी और गैंडे के बच्चे को दूध भी पिलाया, फिर बच्चों का नृत्य देखा, हम लोगों ने पढ़ा है मेहमान भगवान् होता है फिर वो तो हमारे घोषित भगवान् रह चुके हैं अच्छे से खातिर की उनकी|
मेरा ये लेख उनके यहाँ रहते हुए उनको मिल जाता तो बड़ी शर्मिंदगी उठानी पड़ती बेचारों को, शायद इसलिए मैंने हिंदी में लिखा फिर बताया भी नहीं के लिख लिया है (हा हा)
अंग्रेजी अच्छी भाषा है उसमे मात्रा भी नहीं होती अगर मैं बोल या लिख पाता तो जरुर उनको ये भेजता
 
जिंदाबाद जिंदाबाद
भारत माता की जय

छुट्टियों के दिन और मामा का घर

एक समय था जब परीक्षा के परिणाम से ज्यादा उसके बाद होने वाली छुट्टियों का इंतजार किया करते थे| तक़रीबन हर साल एक यही तो समय होता था जब गर्मियों की छुट्टियां पड़ती थी और मामा के घर 10-15 दिन के लिए जाना होता था| हमारी साल की पिकनिक, भ्रमण वही होता था| मामा का घर मतलब सपनों का आशियाना जहाँ कोई पाबन्दी नहीं खुला आसमान, पेड़, खेत, बाग़ और नहर से निकला हुआ नाला जो हमारा फन पार्क, थीम पार्क, वाटर पार्क और न जाने क्या क्या सब कुछ वही था| गाँव में खेतों के नाम होते हैं, देता वाला खेत, पुलिया वाला खेत, सुबह शुरू होती थी दो रोटी एक गंठा (प्याज) और मेरा सबसे पसंदीदा ननि घी यानि मक्खन (जिसको शहर वाइट बटर कहता है) और मट्ठा यानि छाछ (जिसको शहर आजकल लस्सी भी कहने लगा है) नाश्ता इससे बहतरीन कुछ नहीं| फिर निकल पड़ते नानी, मौसी और मामा के बच्चों के साथ पुलिया वाले खेत में जहाँ उड़द की दाल चुंटी (तोड़ी) जाती, उसको हम बाल्टियों में इकठ्ठा करते, शर्त लगती थी कौन पहले बाल्टी भरेगा| 2-3 घंटे यहाँ बिताने के बाद भैंस, झोटे (भैंसा) और बैलों को लेकर हमारे फन पार्क वाले नाले में जाते थे, जानवरों को नहलाने और मस्ती करने, यमराज की तरह भैंसे की सवारी हम भी करते, नाना को पता होता कि हम भैंसे की सवारी करेंगे तो वो ज्यादातर हमारे आसपास ही रहते, वैसे हमारे घर भी भैंसा और दूसरे जानवर थे पर वहां छूट नहीं होती थी, ऊपर से मम्मी का डर| ये डर दोतरफा था और आज भी है हमें मम्मी की डांट और पिटाई का डर और मम्मी को इनको कुछ हो न जाये वाला डर, ये तो अब शाश्वत है इसका कुछ किया नहीं जा सकता| पर मामा के यहाँ ये बेड़ियाँ और बंदिशें नहीं होती थीं क्योंकि मम्मी को भी तो नाना और नानी का डर होता है अब जो शाश्वत है वो सबके लिए है|
तो हम कहाँ थे हाँ नाले पर, वो नाला इतना गहरा था के हम पैर नीचे रखकर तैरने का नाटक कर सकते थे और तैरना वो आजतक नहीं सिखा उसमे 2 घंटे कभी जानवरों को नहलाते और कभी खुद मस्ती करते, उस समय हमारे लिए सबसे बड़े आश्चर्य की चीज़ हुआ करती थी उसमे बनने वाले भंवर जिसके इर्द गिर्द हमने सैकड़ों कहानिया बुन ली थी कुछ रोचक और कुछ बकवास, सबसे साधारण परन्तु प्रचलित कहानी थी यहाँ भूत है और वो पानी भर के कहीं ले जा रहे हैं, कुछ बड़े होने के बाद पता चला नाले में नीचे से दूसरे छोटे नाले में पानी जाता था इस वजह से भंवर बनते थे| 
आगे फिर कभी

मैं "सिंघम रिटर्न्स" देख रहा हूँ, समय रिटर्न्स विथ टर्नस

कुछ साल पहले एक फिल्म आयी थी सिंघम रिटर्न्स इसमें अरिजीत सिंह का गया हुआ एक गीत था "सुन ले जरा" इसमें फिल्म का हीरो बाजीराव एक दरगाह पर दुआ मांगता हुआ दिखाया गया है, इसमें वो दरगाह नतमस्तक भी होता है जिसको शीश झुकाना भी कहा सकते हैं
इन्टरनेट से लिया है अगस्त 2014 का है जब फिल्म आई थी[/caption]तब एक तरफ अजय देवगन थे और तथाकथित हिंदूवादी संघठन एक तरफ, धमकियों का दौर था देशव्यापी विरोध, जो सनेमा दिखायेगा तोड़ देंगे, अजय देवगन का बहिष्कार करेंगे, सिंघम रिटर्न्स का बहिष्कार करेंगे, जो नहीं मानेगा वो हिन्दू धर्म का दुश्मन, इनकी दुकान बंद कराएँगे
फिल्म के शीर्षक के हिसाब से हीरो लौट कर आता है और मेरे लेख के हिसाब से समय लौट कर आया है किरदार वही हैं कुछ कुछ कुछ नए किरदारों और पटकथा के साथ
पिछले कुछ दिनों से देख पढ़ रहा हूँ की "ऐ दिल है मुश्किल" का विरोध हो रहा है कहा जा रहा है इसमें पाकिस्तानी कलाकार ने काम किया है इसलिए हमें इसका बहिष्कार करना चाहिए यहाँ तक की मुख्यमंत्री की मौजूदगी में महाराष्ट्र के अनौपचारिक बहिष्कार मंत्री (घड़ी घड़ी उत्तर भारतियों पर लाठी डंडे चलाने वाले) ने पांच करोड़ रूपये कहीं जमा कराने के लिए धमकी देकर मांग लिए|
 
इसका सिंघम रिटर्न्स से क्या लेना देना ये आपने मन में आएगा पर ऐ दिल है मुश्किल के साथ एक और फिल्म आई मेरे आराध्य भगवान् राम के आराध्य भगवान् शिव के नाम पर आधारित "शिवाय" जिसमे वही अजय देवगन हीरो की भूमिका में हैं जो सिंघम रिटर्न्स में थे, पर जैसे मैंने कहा समय रिटर्न्स विथ टर्नस, आज वही लोग जो अजय देवगन को बर्बाद करने की कसम खा रहे थे दुआ में लगे हैं कि "शिवाय" हिट हो जाये और "ऐ दिल है मुश्किल" पिट जाये|
 
ये दोनों बाजार का हिस्सा हैं और मुझे यकीन है दोनों फिल्मे अच्छा मुनाफा करेंगी, पर ये कौन हैं जो बहिष्कार करने आते हैं लाठी डंडे लेकर, धमकियाँ लेकर, सीन काट दो पैसे दे दो, पैसे वहां जमा करा दो ये करदो वो करदो तो विरोध नहीं करेंगे के प्रस्ताव लेकर|

विमुद्रीकरण-पुनर्मुद्रीकरण-कैशलेस-लेसकैश

प्रधानमंत्री जी की भाषा में विमुद्रीकरण या अरुण जेटली जी भाषा में कहूं तो पुनर्मुद्रीकरण को भारत की जनता ने पास कर दिया है अब ये आने वाला समय बताएगा की पुनर्मुद्रीकरण भारत की जनता को कितना पास करता है| अभी के हिसाब से सरकारी विभाग ये बताने को तैयार नहीं है कि कितना पैसा वापस आया, अपुष्ट ख़बरें ये आ रही है लगभग 97 प्रतिशत पैसा वापस आ चुका है, और अपुष्ट ख़बरें ये भी बता रहीं है कि केन्द्रीय बैंक अभी पुनर्गणना कर रहा है क्योंकि उनको दोहरी गणना का अंदेशा है|
10 दिसंबर को आखिरी बार केन्द्रीय बैंक ने 12.44 करोड़ वापस आने की बात अधिकारिक रूप से कही थी| 8 नवम्बर के प्रधानमंत्री जी के संबोधन के अगले दिन से 2 सप्ताह बाद तक ये चर्चा होती रही और सरकार भी यही कहती रही जो पैसा वापस नहीं आएगा वो इस कदम की सफलता का परिचायक होगा और वो पैसा सरकार लोगों के भले के लिए इस्तेमाल करेगी| दो हफ्ते के बाद दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और अचानक पहले कैशलेस और फिर लेसकैश की तरफ बहस मुड़ने लगी, मुझे भी लगता है कैशलेस या लेसकैश की ओर जाने से कुछ फायदा तो जरुर होगा, परन्तु क्या सिर्फ इसके लिए देश भर को कृत्रिम आपदा के जैसे हालात में झोंक देना सही था| सरकार का लक्ष्य निश्चय ही कुछ ओर रहा होगा जो अभी अज्ञात है और वो अभी बोलना नहीं चाह रहे| कैशलेस का तो कभी भी प्रचार करके, मुद्रा को थोडा रोककर, लोगों में जागरूकता फैलाकर और जैसी अभी स्कीम चलायी गयीं है (जिनको  कुछ लोग सब्सिडी की तरह भीख नहीं मानते [मैं तो सब्सिडी और इनाम दोनों को आवश्यक मानता हूँ]) किया जा सकता था.
जिस दिन विमुद्रीकरण की घोषणा हुई तो मैं और मेरे साथ कईं लोग बिना किसी संशय के ख़ुशी मना रहे थे, मैं प्रधानमन्त्री का आलोचक हूँ पर उसके अपने कारण हैं वो फिर कभी| पर मुझे अच्छा लगा जो चेतावनी प्रधानमंत्री जी ने 30 सितम्बर को ख़त्म होने वाली अघोषित धन से सम्बंधित योजना के लिए दी थी कि यह आखिरी मौका है उसको साकार किया और कहा अब बस जिसके पास है वो कूड़ा हो गया कम से कम कैश वाला तो हो ही गया, जिस राजनितिक दल का मैं समर्थक हूँ वो दो दिन बाद सरकार के फैसले के खिलाफ सड़कों पर था पर मेरा विश्वास नहीं डिगा मुझे लगा कुछ अच्छा होने वाला है और इसमें कुछ तकलीफें होंगी| मेरे दोस्तों ने, गाँव वालों ने अलग से बार बार मुझसे पूछा कि किधर हो, मैंने हर बार यही कहा मैं इस मुद्दे पर केजरीवाल से सहमत नहीं हूँ (वो मुझसे शायद बार बार इसलिए पूछते थे क्योंकि उनको विश्वास नहीं था, पर जो है वो है)| फिर एक दिन अचानक एक खबर आयी कि सरकार कालेधन वालों के लिए  एक और योजना लेकर आ रही है, नाम रखा गया प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना (हमारे यहाँ गरीब, देश, सेना कुछ ऐसे शब्द हो गए हैं जिनके बाद सवाल जवाब बंद कर दिए जाते हैं) इस योजना के तहत कालेधन वाले अपनी अघोषित आय दिखाकर सरकार को 50 प्रतिशत देकर 25 प्रतिशत घर ले जा सकते हैं और 25 प्रतिशत 4 साल बाद ले जा सकते हैं, मुझे विश्वास नहीं हुआ सरकार ने कहा था 30 सितम्बर को कि यह आखिरी योजना है अब कार्यवाही होगी, लोग पकडे जायेंगे और सजा होगी, फिर सरकार को ये क्या हो गया था, मेरा विश्वास हिल गया मैंने बहुत बहस की, मुझे बताया गया ऐसा नहीं है जैसा तुम समझ रहे हो, अगले दिन लोकसभा में बिल आया और लोकसभा में कोई काम हुआ या नहीं हुआ ये बिल पास हो गया सिर्फ एक दिन में एक बिल पास हो गया और वो था इनकम टैक्स अमेंडमेंट जो नयी योजना के लिए लाया गया था उसमे साफ़ साफ़ वोही लिखा था जैसा मैंने ऊपर प्रेषित किया| ये मेरे हिसाब से पहला विश्वासघात था उस जनता के साथ जो देश के लिए लाइन में लगा दी गयी थी, अगर लोगों को डराना इस मुहीम का लक्ष्य था तो 2-4 लोगों पर कार्यवाही करके डराकर तथाकथित गरीब कल्याण योजना लायी जा सकती थी|
दो लक्ष्यों पर हमने बात कर ली एक कैशलेस और दूसरा कालेधन वालों को डराना, इन दोनों के लिए पूरे देश को परेशान करने का कोई औचित्य मेरी समझ से परे है|
फिर एक दिन नया रहस्योद्घाटन किया गया कि राजनितिक दल कितना भी पैसा जमा करा सकते हैं और कोई जांच तक नहीं होगी, कोई आंच नहीं आएगी| प्रधानमंत्री जी ने एक सभा में बोला उनकी सरकार ने पहले से बने नियम में कोई नया बदलाव नहीं किया राजनितिक पार्टियों को पहले से छूट प्राप्त है, मेरा मानना है जब सब नियम रोज रोज बदले जा रहे थे तो क्या यह एक नहीं बदला जा सकता था|
बहुत से लोग बोल रहे हैं कि विमुद्रीकरण या पुनर्मुद्रिकरण के फायदे लम्बे समय में दिखाई देंगे, वो क्या फायदे होंगे या कितने लम्बे समय बाद दिखाई देंगे कोई बताना नहीं चाहता|
ऐसी तैसी डेमोक्रेसी से लिया एक प्रसंग
"पहले : अगर पूरा पैसा वापस नहीं आएगा तो वो जीत होगी
अब : क्योंकि पूरा पैसा वापस आ गया है तो जीत है"
शोले वाला सिक्का

मामा जी अगले दिन साईकिल ले आये थे

मैं दसवीं कक्षा में था, बोर्ड की परीक्षा का साल भारत में सबसे तनाव और उम्मीदों से भरा साल होता है| चार लोगों से इस साल में सबसे ज्यादा परिचय होता है, ठीक से पढ़ ले उसको देख वो कितना पढ़ रहा है अगर ठीक से नंबर नहीं आये तो चार लोग क्या कहेंगे| मैं खुशकिस्मत था मुझे कभी नंबर के लिए प्रताड़ित नहीं किया गया, माता पिता दोनों अध्यापक हों और पढ़ने के लिए जोर न दिया जाए यह सुख विरले ही किसी को मिलता है|
सर्दियों के दिन थे रोजाना की तरह सुबह साढ़े चार बजे उठा, पांच बजे राजीव भाई जी के यहाँ पढ़ने के लिए जाना होता था| पास वाले गाँव में जाने के लिए रोज सुबह साढ़े चार बजे उठना दिनचर्या का हिस्सा था, सुबह उठकर कभी मम्मी चाय बना देती थी कभी खुद बना लेता था, कभी मन किया तो रात की रखी हुई एक रोटी मक्खन के साथ (शहर जिसको वाइट बटर कहता है) खाकर निकल जाता था| सामने होती थी अपनी हीरो साईकिल मेरी प्यारी साईकिल आजकल उसको स्टैण्डर्ड साईकिल कहने लगे हैं हमारे लिए तो वही थी क्योंकि गाँव में एकाध के पास ही दूसरे प्रकार की साईकिल थी| २२ इंच ऊँची मेरे पसंदीदा हरे रंग में हीरो साईकिल रोज मेरे साथ मिस्सरपुर से पंजनहेड़ी, पंजनहेड़ी से मिस्सरपुर, मिस्सरपुर से कनखल और फिर कनखल से मिस्सरपुर सफ़र किया करती थी या यूं कहूं हम एक दूसरे के साथ सफ़र करते थे, हम एक दूसरे के साथ इतना रम गए थे, कभी वो मेरी पैंट को अपनी चेन में लगे ग्रीस से गन्दा कर देती,कभी मैं उसको कीचड़ में गुजारकर| ये बात अलग थी कि पैंट मम्मी धोती थी और साईकिल को मैं|
राजीव भाई जी के यहाँ हम जाते तो थे गणित पढने पर क्रिकेट के बारे में सबसे गहन चर्चा वहीँ हुआ करती थी, और साथ ही उनका बीच बीच में कोई चुटीली पंक्ति बोल देना पढाई को रोमांचक बनाये रखता|
साईकिल और मेरा रिश्ता ऐसा हो गया था वो खुदबखुद सड़क में हुए गड्ढों से बचाते हुए आसानी से पंहुचा दिया करती थी, कितना कहाँ मुड़ना है अँधेरे में इतना अभ्यास हो गया था कि आँख मूंदकर भी पंहुचा जा सकता था, उस समय सड़क पर अधिकतर कोई वाहन भी नहीं हुआ करता था और ये स्ट्रीट लाइट क्या बला है वो हमने पहली बार शहर में देखी थी तो सड़क पर अँधेरा जबरदस्त रहा करता था|
रात में साईकिल अहाते में या फिर पड़ोस में खाली पड़े खुले हुए बरामदे में खड़ी होती थी, उसके बगल में एक चांदी के रंग की दूसरी साईकिल खड़ी होती थी, वो थोड़ी आधुनिक थी| गाँव में अकसर 7 बजे खाना खाकर बिस्तर में बैठ जाने की आदत है, गाँव में अभी भी कुछेक को छोड़कर लोग जल्दी ही खाना खाकर बिस्तर में बैठ जाते हैं| साढ़े सात बजे साईकिल में ताला लगाकर मैं सोने चला गया|

Wednesday 11 October 2017

ट्रांसफॉर्मर और गाँव की कसमकस

यह उस समय की बात है जब मैं गाँव में रहता था ऐसा नहीं है कि अब नहीं रहता क्योंकि दिल से शहर कभी फबा ही नहीं पर अब आता जाता हूँ रह नहीं पाता। जब से पढ़ाई के लिए देहरादून गया तब से घर आना जाना ही होता है क्योंकि उसके बाद से नौकरी एनसीआर में चल रही है। मेरे लिए शहरी बनना बड़ा मुश्किल काम है, वो फिर कभी अभी पढ़िए ट्रांसफार्मर और गाँव की कसमकस!
साल 2004 से पहले की बातें है हमारे गाँव और आसपास के कई गाँव जहाँ जहाँ मैं जानता हूँ ट्रांसफॉर्मर का ख़राब हो जाना एक पूरा कार्यक्रम हुआ करता था।
वैसे मैंने इस कार्यक्रम में सीधे भाग नहीं लिया पर देखा बहुत बार है।
इसके कईं चरण होते थे
  1. कारण और घर घर चर्चा
  2. पैसे इकठे करना
  3. पुराना लेकर नया लाना
  4. ट्रांसफार्मर को लगाना
  5. गाँव में रौशनी के साथ हल्ला हो जाना
शुरुआत होती थी कि कैसे ख़राब हुआ आखिर हुआ क्या गाँव में हर घर में मुद्दा होता था आज घास(चारा) कैसे कटेगी, क्योंकि टीवी तो कम ही लोगों के पास होता था होता भी था तो लोग आदि नहीं थे। जब बिजली चली जाती पहले तो यह चर्चा होती कि गयी क्यों, क्योंकि बिजली कईं कारणों से जा सकती थी।
उस ज़माने में ट्रांसफार्मर से बिजली की सप्लाई बंद करने वाली हत्थी (स्विच) पर कोई ताला नहीं लगा होता था। जरुरत पड़ने पर लोग हत्थी से बिजली बंद करके वहां अपना एक आदमी खड़ा कर देते थे जब तक कि घर पर बिजली का फॉल्ट ठीक न हो जाये। कभी-कभी शरारती तत्व भी लोगों को परेशान करने के लिये इस हत्थी को नीचे खींच कर भाग जाते थे।
एक रोज रात को ऐसे ही किसी कारण से बिजली बंद थी। रात का दस बजे का समय रहा होगा। पड़ोस के एक ताऊ जी (गाँव में सब चाचा ताऊ होते हैं अंकल नाम का प्राणी नहीं होता) को लगा कि ट्रांसफार्मर पर देख कर आता हूँ, क्या कारण हैं। अँधेरी रात थी वह ट्रांसफार्मर की तरफ बढ़ रहे थे कि अचानक गोली चली और इसी के साथ दो पुलिस वालों ने उनको चोर समझकर पकड़ लिया। गाँव के कुछ लोग भी इकट्ठे हो गए थे। गाँव वालों के बताने पर पुलिस को भी समझ में आ गया था। उस समय अखबार में खबर आयी थी और उसका शीर्षक था…”किस्मत अच्छी थी जो बच गए”
अगर ट्रांसफार्मर ख़राब हो जाता तो फिर शुरू होता था पैसे इकठे करने का कार्यक्रम, गाँव के कुछ लोग मिलकर आपस में तय करते थे किससे कितने पैसे लेने हैं और हिसाब लगाया जाता कि किसके यहाँ घास काटने की मशीन चलती है, किसके यहाँ हीटर, कुछ लोग ऐसे होते थे जो कभी पैसे नहीं देते थे तो उनके पास सिर्फ समय ख़राब करने और उनके यहाँ से निकलने के बाद ये बात करने में जाया किया जाता था कि हमें तो पहले ही पता था यहाँ से नहीं मिलने वाले अबकी बार इनके यहाँ सिंगल फेज बिजली देंगे (पर ऐसा कभी होता नहीं था)| पैसे इकठे करने की कुछ वजहें थी, गाँव में लोगों को खुद ही रूड़की तक पुराना ट्रांसफार्मर गाँव से ले जाना और नया गाँव में लाना होता था उसके लिए वाहन तो गाँव के ही किसी व्यक्ति का ले लिया जाता परन्तु आने जाने के तेल, रूड़की में इंजिनियर को रिश्वत देने और जो लोग गए हैं उनके रास्ते में कुछ खाने के प्रबंध के लिए पैसों की आवश्यकता होती थी| इसमें बहुत मेहनत होती फिर भी कुछ लोग नाम रख ही दिया करते थे ये लोग कभी हिसाब नहीं देते सारे पैसे खा पीकर उड़ा देते हैं वगरह वगरह…कोई नहीं यह तो घर घर की कहानी…गाँव गाँव की कहानी है…
अब शुरू होता रोमांचक काम ट्रांसफार्मर को दो खम्बों के बीच बने प्लेटफोर्म से उतारना, मानों पूरा गाँव इकठा हो जाया करता और गांव के ही कुछ लड़के बनाये गए नियत स्थान यानी दो खम्बो के बीच बने प्लेफॉर्म से उतारते थे उस समय भीड़ लगी होती थी हम जैसे बच्चों की और गांव वालों की भी 10 लोग काम कर रहे होते तो 50 उन्हें ऐसा या वैसा करने को चिल्ला चिल्ला कर बोल रहे होते थे। एक यंत्र आया करता है उसको चेनकुप्पी बोला जाता है उसको आप हाथों से चलने वाली क्रेन भी बोल सकते हैं भारी से भारी सामान नीचे से ऊपर और ऊपर से नीचे पंहुचाने में मदद मिलती है।
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गूगल से लिया गया चेनकुप्पी चित्र
भौतिकी के सिद्धान्त पर बनी बहुत ही अच्छी हाथों से चलने वाली मशीन है एक आदमी चेन खिंचता रहता है और सामान धीमी धीमी गति से ऊपर या नीचे की और जाता है कुछ कुछ कुँए से पानी खीचने जैसा है पर यह उस समय की और भी आधुनिक मशीन है जिसमे भारी से भारी चीज़ को खीचने में ताकत नहीं लगानी पड़ती मेरे जैसा सामान्य कद काठी का आदमी भी यह काम कर सकता है।
सबसे पहले चेनकुप्पी को ऊपर वाले एंगल में लगाया जाता था फिर चेन के सिरे ट्रांसफॉर्मर में जोड़े जाते थे जिनमें हुक लगे होते, ट्रांसफॉर्मर के निचले हिस्से में रस्सियां बांधकर भीड़ के हवाले कर दी जाती जो ट्रांसफॉर्मर को यथास्थिति में बनाये रखने के लिए होती थी। ये रस्सियां तीन काम करती थीं एक ट्रांसफॉर्मर को खम्बों से टकराने से रोकती, दो उसको पेंडुलम की तरह झूलने से बचाती और तीन सभी दर्शकों के लिए मनोरंजन और चिल्लाने का मौका देती इधर मत करो उधर मत करो (वैसे गाँव की भाषा में इंघे नी ऊँघे नी) फिर 2 आदमी बारी बारी से चेनकुप्पी में चेन खींचते थे, जब एक थक जाता तो दूसरा खींचना शुरू कर देता, कईं बार यही क्रम दोहराए जाने के बाद ट्रांसफार्मर नीचे खड़े वाहन में पंहुचा दिया जाता| इतना होते ही भीड़ छटनी शुरू हो जाती क्योंकि अब नंबर आता था रूड़की जाने का क्योंकि वहां तो सब जा नहीं सकते थे और कुछ तो वाकई में जाना नहीं चाहते थे हम जैसों को जाने नहीं दिया जाता था|
ट्रांसफार्मर लाते हुए भी किस्से हो जाया करते थे, बहुप्रचलित किस्सा है गाँव के भोलेपन और अनजान होने का, उस समय मोबाइल तो था नहीं किसी के पास तो वापस आने की सूचना अकसर रूड़की से नया ट्रांसफार्मर लेकर लौटते हुए रस्ते में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के सामने गाँव से लगभग 4 किलोमीटर दूरी पर बिजली घर पर लगे पीएनटी फ़ोन से दी जाती थी, एक बार एक बन्दे ने फ़ोन उठाकर बोला कि हम पंहुचने वाले हैं लाइनमैन को बुला लो, जब वो बाहर आये तो सबने पूछा किसको बोला, किसके नंबर पर मिलाया तो उसने बोला नंबर भी लगाना होता है क्या मैंने तो बस बोल दिया, जिनको मालूम था उन सबने खूब ठहाके लगाये, और मुझे बताया गया कि वो अब भी उस बात को याद करके हँसते पड़ते हैं|
गाँव में बच्चों का नेटवर्क बहुत ही कामयाब होता है जितनी तेजी से बिजली आती जाती थी उसी तेजी से खबर पंहुचने का काम बच्चे किया करते है, जैसे ही ट्रांसफार्मर आता जो भी बच्चा पास में होता उसको गाँव में खबर देने के लिए कहा जाता वो एक मोहल्ले में बोलता फिर वहां से दूसरा बच्चा दूसरे मोहल्ले में और अगला फिर उससे आगे ऐसे करके उस समय के सबसे कारगर नेटवर्क से खबर पूरे गाँव में फ़ैल जाती अब फिर वही मेला लग जाता जो ट्रांसफार्मर के उतरने के समय लगा था|
अब ट्रांसफार्मर को जैसे उतरा गया था उसी चेनकुप्पी के सहारे प्लेटफार्म तक चढ़ाया जाता, फिर से चेनकुप्पी को एंगल में लटकाया जाता और उसमें लगी संकल के सिरे को ट्रांसफार्मर के उपरी हिस्से से बांधकर पहले से विपरीत दिशा की संकल को खींचा जाता और वैसे ही रस्सियों को ट्रांसफार्मर को सुरक्षित रखने के लिए कईं लोग संभाले रखते थे, कभी कभी उस रस्सी को पकड़ने का सौभाग्य प्राप्त हो जाता तो कईं कईं बार दोस्तों के बीच उसका जिक्र किया करता मैंने आज रस्सी को पकड़ा था या जब उनको मौका मिलता वो भी ऐसा ही करते भले ही हममे से किसी ने जरा भी ताकत न लगाई हो उस रस्सी से बंधे ट्रांसफार्मर को रोकने के लिए और सही में ताकत लगाने लायक स्थिति में हम होते भी नहीं थे| खैर कुछ लोगों की कड़ी मेहनत के बाद ट्रांसफार्मर अपने नियत स्थान पर स्थापित कर दिया जाता|
अब काम शुरू होता था 11000 की लाइन से ट्रांसफार्मर को जोड़ने का जो बेहद ही जोखिम भरा होता था एक तो ऊँचाई पर चढ़कर तारों को जोड़ना और ऊपर से बिजली आ जाने का अंदेशा होना, वैसे तो अधिकतर समय बिजलीघर पर गाँव से कोई गया होता था परन्तु कभी कभी दूसरे गाँव के लोग बिजलीघर में आकर बिजली चालू करने के लिए हंगामा करने लगते थे तो गलती होने की सम्भावना हमेशा बनी रहती थी| फिर भी गाँव के कुछ लोग जो अधिकतर बिजली का काम देखकर सीखे होते थे उनको तकनीकि शब्दावली का भले ही ज्ञान न हो परन्तु बिजली की रग रग से वो वाकिफ़ थे, कौन से तार कहाँ लगने है कैसे अर्थिंग देनी है सब कुछ देख देखकर वो सीख जाते थे और कर भी देते थे|
इस सब मेहनत के बाद बिजलीघर में खड़े आदमी तक सन्देश पंहुचाया जाता कि अब बिजली चालू करवा सकते हो। तब बिजली शुरू की जाती और ट्रांसफार्मर पर लगी हत्थी को ऊपर उठाया जाता, हालांकि अधिकतर बार सबकुछ सही हो जाया करता फिर भी कभी कभी डबल फेज की समस्या आ जाती क्योंकि देखकर सीखना और उसमे कोई एक कमी रह जाना लाजमी है, डबल फेज ऐसी समस्या है जिसमे 100 वाट का बल्ब 200 वाट की चमक तो देता है पर कुछ देर में फट भी जाता है, होता ये था कि जिस मोहल्ले में डबल फेज हो जाता वो चिल्ला रहा होता था बंद कर दो बंद कर दो और उस सूचना को भी बच्चे बखूबी अपने नेटवर्क से ट्रांसफार्मर पर खड़ी भीड़ तक पंहुचा देते|
जैसे ही गाँव में बिजली आती बच्चे पूरे गाँव में शोर मचाते हुए भागते थे उस क्षण का अपना ही आनंद होता था। जैसे ही बिजली आती जिनके यहाँ बिजली से चलने वाली चारा काटने वाली मशीन खच खच करने लगता। एक या दो वीसीआर वाले लोग थे तो उनके यहाँ जमावड़ा लग जाता फिल्म चालू हो जाती। कोई बिजली के माध्यम से जुड़ा था या नहीं फिर भी वो ख़ुशी मना रहा होता और ये उत्सव 3-4 दिन चलता, सब एक दूसरे से बात करते रहते। जिन्होंने काम किया होता वो तारीफ से फूले नहीं समां रहे होते।
ट्रांसफार्मर ही सर्वानंद था उस समय का…भगवान् कसम मजा ही आ जाता था।